हम खाते
हैं भूख मिटाने के लिए, वस्त्र धारण करते हैं लज्जा निवारण के लिए, आराम
करते हैं थकावट दूर करने के लिए। हमारा प्रत्येक कार्य किसी खास तात्पर्य
से होता हैं फ़िर हमारा जीवन तात्पर्य विहीन क्यों हो?ये सभी जीवन के लिए
आवश्यक हैं, पर जीवन स्वयं किस लिए है? इस जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए,
एक ध्येय होना चाहिए। लक्ष्य का निर्माण करना सहज हैं पर ल्क्ष्य को
प्राप्त करना कठिन।हो सकता हैं लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमें आजीवन
परिस्थितियों से लड़ना पडे़, हो सकता हैं हमें विकट रास्ते से गुजरना पडे़,
आत्मीयजन साथ छोड़ दे। अपना कहलाने वाले पराया बन जाय, लोग छीटा-कसी करे,
हमारे पैर लड़खड़ाए,कुछ दिनो तक निराशा के सिवा कुछ हाथ न लगे। पर हमें साहस
और धैर्य नही खोना चाहिए। आगे चलकर पीछे नही मुड़ना चाहिए। हमारे पास सच्ची
लगन हैं तो अन्त में हमें सफलता अवश्य मिलेगी।मैं दुनिया से निर्लिप्त रहकर
आत्मोन्नति करना चाहती हूँ, आत्म विकास करना चाहती हूँ। मैं सदा अपनी
इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की चेष्टा करती हूँ, क्यों कि मैं जानती हूँ
कि आज के युग में पग-पग पर प्रलोभन हैं,वासना को उभारने वाली चीजे हैं,
स्कूली पुस्तक से लेकर फिल्मो के कथानक और रेडियों के गीतो तक में श्रींगार
रस की प्रधानता हैं जबकि मैं महसूस करती हूँ कि इसके लिए शान्त और स्वच्छ
वातावरण और सात्विक भोजन की आवश्यकता होगी। आज की शिक्षा से मैं असन्तुष्ट
हूँ। मुझे ऎसी शिक्षा की आवश्यकता हैं जो आत्मिक विकास में सहायक हो, हमारे
सदगुणो को जगाये। मैं जानती हूँ कि दुनिया मुझे कहेगी कि तुम कठिनाइयों से
डर कर भाग रही हो। यह दुनिया कर्मभूमि हैं,यहा कायरों के लिए स्थान नहीं।
मुझे कठिनाइयों से भय नही, बाधाओं से घबराती नहीं, डर हैं तो आज के पतित
दुनिया के प्रति।मैं दुनिया नही छोड़ना चाहती बल्कि दुनिया के दुर्गुणो पर
विजय पाने की शक्ति प्राप्त करना चाहती हूँ। मैं कर्म से नही डरती,कर्तव्य
से नही भागती बल्कि चाहती हूँ त्याग और तपस्या की अग्नि में जलकर दुनिया के
समक्ष एक उदाहरण बनूं ।वह देश, वह समाज, वह व्यक्ति सभ्य नहि कहला सकता
जिसने स्त्रियों का आदर न किया हो। पुरुष देश की बाहु हैं तो स्त्री देश का
ह्दय। एक को भी खोकर देश सबल नही रह सकता।पुरुष द्वार का रौनक हैं तो
स्त्री घर का चिराग। आज हमारे घरो में चिराग हैं पर उसमें तेल नही। दोष हैं
हमारे समाज का। हमारे समाज के लोग कह्ते हैं ,स्त्री-शिक्षा पाप हैं । लोग
कहते हैं , वेद कहता हैं, पुराण कहता हैं नही ,ये वही लोग कहते हैं जो
वेद और शास्त्र शब्द को शुद्व लिख भी नही सकते।अत: जिस तरह पुरुष शिक्षा
आवश्यक है उसी तरह स्त्री शिक्षा भी अनिवार्य हैं। यह आवश्यक नही कि हमारे
देश की स्त्रियाँ भी अन्य देशो की स्त्रियों की तरह नौकरी करने के लिए ही
पढे।
जीवन क्षेत्र का विभाजन
प्रमुखत: दो भागों में किया जा सकता हैं- घर और बाहर। दोनो का महत्व समान
होते हुए भी पहला घर हैं। क्यों कि घर की उन्नति पर ही बाहर की उन्नति
निर्भर करती हैं। घर की देख-रेख करना साधारण काम नही हैं बल्कि इसमें अधिक
धैर्य और सहनशीलता की आवश्यकता होती हैं। पुरुष इतना त्याग नही कर सकते।
लोग कहते हैं कि बच्चे पालना और रसोई करना बेकार काम है, उन्हें एक नौकरानी
कर सकती हैं लेकिन मैं कहती हूँ बच्चे पालना और रसोई बनाना दुनिया के सभी
कामों में महान काम हैं।ये वे काम हैं जिन पर किसी का बनना-बिगड़ना निर्भर
करता हैं। नौकरी करने वाली स्त्री सिर्फ अपना भाग्य निर्माण कर सकती हैं,
सिर्फ अपने आपको दूसरो की निगाह में ऊँचा उठा सकती हैं, पर घर में काम करने
वाली शिक्षित स्त्री देश का भाग्य निर्माण कर सकती हैं। स्वयं छिपे रहकर
बहुतो को प्रकाश में ला सकती हैं।घर का खाना स्वादिष्ट इस लिए होता हैं कि
उसमें स्नेह के कण मिले रहते हैं। घर की स्वामिनी ही अपने पति की स्वामिनी
होती हैं। जिसने घर पर अपना कब्जा न किया वह पति पर क्या कब्जा कर सकती
हैं।अगर पढी लिखी स्त्रियाँ दूसरे के नौकरी की अपेक्षा अपने घर की ,अपने
बच्चो की देखभाल करे तो मेरा विश्वास हैं कि एक के चलते अनेको का सुधार हो
जायेगा और घर का ही दूसरा नाम स्वर्ग पड़ जायेगा।
Aapki baat se sahmat hoon.