Tuesday, 23 June 2020

दोहा मुक्तक


(2)
अब कागज के फूल से,सभी सजाते द्वार।
देख अपरचित से लगे,दिखती नहीं बहार।
कलयुग है कंचन सुनो, सब हैं माया जाल,
सूरत चिकनी झूठ की,जिससे करते प्यार।

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