Friday 1 March 2013

लोक साहित्य

           लोक साहित्य आधुनिक हिन्दी का श्ब्द है यह दो शब्दो के योग से बना है लोक और साहित्य। साहित्य का अर्थ तो सभी जानते हैं परन्तु लोक शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ देता है । लोक -साहित्य जनता का वह साहित्य है जो जनता द्वारा जनता के लिए लिखा गया है। लोक साहित्य लोक मानस की सहज और स्वभाविक अभिव्यक्ति है। जो अपनी मौखिक परम्परा द्वारा एक पीढी से दूसरी पीढी तक बढता रहता है । उसकी आशा -निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ- हानि, सुख- दुख आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में होती है, वह लोक साहित्य है जो गीतों और कहानियों के माध्यम से अपने हार्दिक सुख- दुख की भावनाओं का प्रकाशन करता है।
                लोक साहित्य के अन्तर्गत लोक गीत, लोककथा, लोककहानी, चुटकुले, पहेलिया, कहावते, मन्त्र आदि समाहित है। लोक गीत जो बहुत ही ह्दयस्पर्शी होते हैं ।
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" काहे को ब्याही विदेश, रे लक्खी  बाबुल मोरे
भइया को दीन्हें महल दुमहले, हमको दियो परदेश रे"
ऎसे ही मै एक गीत लिख रही हूँ शायद आपकी दिल को छू जाय--------
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
 धिया के वियहल बिपतिये में
कन्यादान पहिले तू कुछु ना जनवल
मूरख गवार हाथे बेटी के लगवल
हुडु.क समाइल हमरा छतिया में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
गोदिया मे खेलनी अगनवा दुवरवा
सान्झी दुपहरिया मे घर से बहरवा
सपना देखिला इहे रतिया में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
सासु ननद जी के भावे नाही बतिया
देवरु पिया के चाही होन्डाकार थतिया
ससुरा के मन दवलतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
होई गइली रतिया सुहागवा सपनवा
पल-पल बरिस बुझाला हमरा मनवा
सुख के सिंगरवा अफ़तिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
हाय; माई बाबू जी हो इहे बा खबरिया
भेज दीह भइया संगे कइसनो सवरिया
जीयतानी कइसहूं ससतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
फ़ूके के तयारी होता फ़ांसी के जतनवा
करता धक धक जीयरा परनवा
छूटि गईली देह दुरगतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया