दोहा मुक्तक
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कैद किये प्रिय नजर से , दिये एक मुस्कान।
हार गयी मैं हृदय को , और हुई कुर्बान।
कर सोलह श्रृंगार मैं , गई सजन के पास,
उपमा में मुझको कहा , मुखड़ा चाँद समान।
फँसी मुहब्बत जाल में , जकड़ गयी मैं यार।
मेरे मन के मीत थे , कर ली उनसे प्यार।
सात जनम में बँध गयी ,मैं सजना के साथ,
दर्पण थे मेरे पिया , करती थी श्रृंगार।
चुरा लिया चित चोर ने , लगा प्रेम का रोग।
वो पतंग मैं डोर हूँ , कहते ऐसे लोग।
सुध बुध खोई मैं खड़ी , करूँ पिया को याद,
करें सखी उपहास ये , किया किसी ने जोग।
क्या मोहब्बत है यही ,कौन मुझे समझाय।
जियरा धड़के जोर से , पल पल बढ़ता जाय।
नहीं दवा इस रोग का , कहते ऐसे वैद्य,
प्रीत रोग मुझको लगी , अब क्या करूँ उपाय।
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