Thursday, 3 September 2015

एक कविता/कंचनलता चतुर्वेदी

काल्पिनक सपनो में खोया पड़ा है ।
दुनिया से बेख़बर सोया पड़ा है ।
इसे क्या पता कितना खोया है,
बेवक्त भी सोया है,
उठेगा, कर्म को कोसेगा, ...
जिंदगी की रेस में भटकेगा,
कुछ खोएगा, कुछ पायेगा,
आदमी बार-बार किस्मत को कोसेगा ।

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