Monday, 9 December 2019

दोहा गजल


तन तो कांचा कुम्भ है , कर मन का सिंगार।
सत्य,शील, हो सादगी , त्यागो मनो विकार।।

चोरी भ्रष्टाचार है , दंगा और फसाद,
कैसा आया वक्त ये , है जनता लाचार।

घिसती टांगे न्याय बिन , नहीं मिला इंसाफ,
फाँसी प्रिय लगने लगी , उजड़ा फिर संसार।

नहीं जुर्म साबित हुआ , इससे बड़ा न जुर्म,
ह्रदय हीन ये न्याय है , नहीं सत्य स्वीकार।

टूटा हुआ पहाड़ था , नदियां हुई विलुप्त,
बूढ़ा बरगद सूखता , जीना है दुश्वार।

जहाँ कटोरी थी रखी , वहां दिखी बस प्यास,
टूटा पंछी-पंख था , बैठी रोती नार।

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