जग जननी धरती कहलाती।
पानी बिन बंजर बन जाती।।
शीत धूप को सहती रहती।
धरती माता कुछ ना कहती।।
सूरज चीर क्षितिज जब आता।
फिर तरु-पल्लव को झुलसाता।।
कितना पीड़ादायक होता।
देख व्यथा फिर मानव रोता।।
प्रकृति नष्ट ना मानव करता।
फिर विपदा से कभी न लड़ता।।
जड़ चेतन में जोश जगाते।
सूरज अपना धर्म निभाते।।
बादल बनते हैं जब दुल्हे।
तभी घरों में जलते चुल्हे।।
साज बाज सह लेकर आते।
गरज- गरज कर जल बरसाते।।
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